अख़बार अगर इतिहास का पहला ड्राफ्ट हैं तो आज के ज्यादातर हिंदी अख़बारों के आधार पर भविष्य में आज के इतिहास में क्या लिखा जाएगा?   

हिंदी पत्रकारिता दिवस (30 मई) पर विशेष

“एक अच्छा अखबार (या टीवी न्यूज चैनल या फिर डिजिटल न्यूज साइट) वह है जिसमें देश खुद से बातें करे.”- यह कसौटी बनाई थी मशहूर लेखक और नाटककार आर्थर मिलर ने एक अच्छे अख़बार की.

इस पैमाने पर हमारे हिंदी के बड़े और मंझोले अख़बार, टीवी न्यूज चैनल और डिजिटल न्यूज साइट कैसे दिखते हैं? क्या उनमें हमारा देश दिखता है?  

क्या हमारे हिंदी के अख़बारों, टीवी न्यूज चैनलों और न्यूज साइटों पर देश और उसके लोग खुद से बातें करते, एक-दूसरे से बातचीत करते, आत्म-संवाद और आत्मावलोकन करते और एक-दूसरे के सुख-दुःख, उम्मीदों-आकांक्षाओं-संघर्षों-तकलीफों को सुनते-गुनते दिखते हैं? हिंदी के हमारे समाचार माध्यमों में क्या उस “भारत भाग्य विधाता” के सरोकार दिखाई या सुनाई देते हैं? और जो लोग इनमें दिखाई या सुनाई देते हैं, वे कौन लोग हैं?

यह किसी से छुपा नहीं है कि 90 के दशक के बाद के आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की लहर ने हिंदी के ज्यादातर बड़े अखबारों को बदल दिया है. उस दशक में टाइम्स ग्रुप से शुरू हुई कारपोरेटीकरण की लहर ने एक दशक के अन्दर ज्यादातर हिंदी अखबारों की शक्ल-सूरत, कलेवर और सबसे ज्यादा उनके व्यक्तित्व को बदल दिया.

70-80 के दशक के ब्लैक एंड व्हाइट अखबारों की तुलना में अखबारों की छपाई पहले से बहुत बेहतर, डिजाइन ज्यादा आकर्षक और ज्यादा रंगीन-चमकदार हो गई. वे पहले से ज्यादा भरे-पूरे और मोटे हो गए. पत्रकारों की तनख्वाहें भी बढीं. उतनी नहीं जितनी अंग्रेजी के अखबारों की बढीं. लेकिन पहले की तुलना में उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर जरूर हुई. अखबारों का सर्कुलेशन लाखों और पाठकों की संख्या करोड़ों में और मुनाफा अरबों में पहुँचने लगा.

इन हिंदी और भाषाई अख़बारों के मालिकों का रसूख कई गुना बढ़ गया. उनमें से कई राज्यसभा भी पहुँच गए. उनमें से कुछ नियमित तौर पर देश के सबसे ज्यादा ताकतवर और प्रभावी लोगों की सूची में जगह बनाने लगे. वे अख़बार के साथ-साथ और कई धंधों में उतरने लगे. संपादकों को भी पद्मश्री आदि मिलने लगी. 

रही-सही कसर हिंदी के टीवी न्यूज चैनलों ने पूरी कर दी. वैसे भी वे उत्तर उदारीकरण दौर की संतान थे. इसलिए वे शुरू से ही रंगीन-चमकदार और बड़बोले थे. यह वही दौर था जब कहा जाने लगा कि हिंदी पत्रकारिता का स्वर्ण युग आ गया है.

लेकिन यह किसका स्वर्णयुग है? अख़बारों का? उनके मालिकों का? पत्रकारों और संपादकों का? पत्रकारिता के मूल्यों और सरोकारों का? पाठकों का? आखिर यह किसका स्वर्णयुग है?

मानिए या नहीं, लेकिन ऐसा दौर आएगा, यह बहुत पहले, कोई 60 साल पहले, हिंदी पत्रकारिता के यशस्वी संपादक पंडित बाबूराव विष्णुराव पराड़कर ने देख लिया था. 1936 में दिए गए अपने मशहूर भाषण “आछे दिन, पाछे गए” में उन्होंने कहा था कि भविष्य के अख़बार ज्यादा रंगीन, बेहतर कागज़ और छपाई वाले होंगे लेकिन उनमें आत्मा नहीं होगी.

क्या वह इसी उत्तर उदारीकरण, कार्पोरेट नियंत्रित दौर के हिंदी अख़बारों और उनकी पत्रकारिता की बात कर रहे थे? कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज हिंदी के ज्यादातर बड़े अख़बारों और समाचार माध्यमों के व्यापक प्रसार, पहुँच और प्रभाव के बावजूद इतने श्री-हीन और व्यक्तित्व-हीन क्यों दिखते हैं? उनकी पहचान क्या रह गई है? उनकी आवाज़ कहाँ गुम हो गई है?

असल में, वे इन वर्षों में सत्ता और कार्पोरेट के और करीब पहुँच गए हैं. “हिज मास्टर्स वायस” की तर्ज पर उसकी आवाज़ बन गए हैं. उनमें सत्ता से सवाल पूछने और उसकी जिम्मेदारी तय करने का साहस लगातार घटता गया है. जन सरोकार पीछे छूटते चले गए हैं, मुनाफ़े की भूख बढ़ती गई है, मालिकों के लिए दांव ऊँचे होते चले गए हैं और उसी अनुपात में सत्ता और कार्पोरेट के साथ रिश्ते गहराते गए हैं.     

नतीजा हिंदी अख़बारों को “मूक-बधिर बनाने” (डंबिंग डाउन) के रूप में सामने हैं. ज्यादातर हिंदी अख़बारों में ख़बरों और सूचनाओं की भरमार है. लेकिन वे ख़बरें अख़बारों में क्यों हैं, उनके माने-मतलब क्या हैं- यह सिरे से गायब कर दिया गया है. इन ख़बरों की बाढ़ के बीच उनका अर्थ गुम हो गया है. इंफोटेनमेंट की भरमार है- क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम, सेलिब्रिटी इन “खबरों” में छाए हुए हैं. 

पराड़कर जी की बात सही है- इन अखबारों में आत्मा नहीं रह गई है. वे रूप-रंग और शरीर से अख़बार हैं लेकिन उनकी आत्मा अखबार की नहीं रह गई है. वह अख़बार जिसमें देश खुद से बातें करता हुआ सुनाई दे, जिसमें देश और उसके लोग और उनके सरोकार दिखाई दें. वह अख़बार जिसने देश की आज़ादी की लड़ाई में अपना व्यक्तित्व हासिल किया. वह अख़बार जो सत्ता के सामने डटकर खड़ा हुआ और लोगों की आवाज़ बुलंद की.

आज हिंदी के ज्यादातर अख़बार विचारहीनता के पर्याय बन गए हैं. उन्होंने विचारों से जैसे तौबा कर ली है. वे या तो सत्ता और कार्पोरेट के भोंपू बन गए हैं या फिर बिना थाली के बैंगन जो बिना मतलब इधर से उधर लुढ़कते रहते हैं. यही कारण है कि ज्यादातर अखबारों का आज अपना कोई अलग व्यक्तित्व या पहचान नहीं रह गई है.

अगर इन रंगीन अख़बारों का मास्टहेड हटा दें तो उनके बीच फर्क करना मुश्किल हो जाएगा. बिलकुल कोका-कोला और पेप्सी कोला की तरह. एक ही रंग, एक ही कीमत और लगभग एक ही स्वाद. उनके कंटेंट में कोई बुनियादी अंतर नहीं है. आपसी प्रतियोगिता में इन अखबारों के बीच एक-दूसरे को कॉपी करने और उस जैसा बनने की होड़ लगी हुई है.

आश्चर्य नहीं कि इक्का-दुक्का अख़बारों को छोड़ दें तो ज्यादातर अख़बारों ने अपने यहाँ से विचारों को बेदखल कर दिया है. ऐसा नहीं है कि उनका विचार नहीं है. विचार है- अवसरवाद और कारपोरेटवाद. उनमें विचारों का लोकतंत्र नहीं है. यही कारण है कि ज्यादातर हिंदी अख़बारों ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ को लगभग खत्म कर दिया है या उसे सेलिब्रिटी न्यू एज "विचारकों" के हवाले कर दिया है या फिर सैनिटाइज कर दिया है जिसमें आलोचना को नख-दन्त विहीन आलोचना बना दिया गया है.

कहते हैं कि अख़बार जल्दी में लिखा हुआ इतिहास या इतिहास का पहला ड्राफ्ट हैं. लेकिन अगर आज के ज्यादातर हिंदी अख़बारों को भारत के मौजूदा इतिहास का पहला ड्राफ्ट मानें तो भविष्य के इतिहासकार आज के इतिहास के बारे में क्या लिखेंगे? क्या वही भारत का वास्तविक इतिहास होगा?  

आज़ादी की लड़ाई के दौर के अख़बारों में तो उस दौर का इतिहास और आज़ादी की लड़ाई दिखाई देती है. आज़ादी के बाद के दौर खासकर इमरजेंसी और उसके बाद के दशक के हिंदी अख़बारों में भी काफी हद तक उस दौर की राजनीति और समाज की हलचल दिखाई देती है.

लेकिन आज के खासकर उत्तर उदारीकरण दौर के अख़बारों में आज का कौन सा इतिहास दिखाई देगा?

सोचिए और सिर धुनिए.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार