महामारी और पत्रकारिता: जो बिछड़ गए और जो गंभीर मानसिक आघात के बीच जद्दोजहद कर रहे हैं

पत्रकार जो खुद इस संकट के "फर्स्ट रिसपोंडर्स" हैं, फ्रंटलाइन से रिपोर्ट कर रहे हैं, उन्हें न्यूज मीडिया कंपनियों और हमारी सरकारों ने उनके हाल पर छोड़ दिया है.

आज दोपहर अचानक विद्यार्थियों के व्हाट्सएप्प ग्रुप में जब यह खबर देखी कि "आजतक" के स्टार न्यूज एंकर रोहित सरदाना का निधन हो गया तो सहसा विश्वास नहीं हुआ. मन में पहली प्रतिक्रिया यही हुई कि यह अफवाह होगी. थोड़ी झुंझलाहट भी हुई कि छात्र व्हाट्सएप्प ग्रुप में बिना पुष्टि के कोई भी खबर डाल देते हैं.

लेकिन कुछ ही मिनटों में यह स्पष्ट हो गया कि कुछ पलों के लिए स्तब्ध कर देनेवाली यह दुखद खबर सही थी. उसके बाद काफी देर तक सोचता और इस खबर को एब्जार्ब करने की कोशिश करता रहा. ट्विटर पर देर तक यूं ही ऊपर-नीचे करता रहा. मन को उलझाने की कोशिश करता रहा. श्रद्धांजलियाँ पढ़ता रहा.

पिछले कई दिनों/सप्ताहों से ट्विटर टाइमलाइन और व्हाट्सएप्प ग्रुप या तो श्रद्धांजलियों से भरे हैं या फिर करीबियों और परिचितों के गंभीर रूप से बीमार और एक अस्पताल बेड या आक्सीजन या दवाइयों के लिए SoS काल से भरे पड़े हैं.

कोरोना वायरस दिन पर दिन हमारे और नजदीक आता जा रहा है. कल तो जो मौतें सिर्फ आंकड़ा थीं, आज उनके नाम हैं. उनमें से कई हमारे मित्र, परिचित और रिश्तेदार हैं. जो बीमारी और मौत कल तक बहुत दूर दिखती थी, अचानक हमारे पड़ोस, घरों, गाँव और मोहल्ले में पहुँच गई है.

यह महामारी कितनी निर्मम होती जा रही है. यह हमारे प्रियजनों को छीन रही है. लेकिन लाचारी और बेबसी ऐसी कि आप कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं.

ऐसा लगता है जैसे कोई लम्बा दु:स्वपन हो या कोई हारर फिल्म देख रहे हों या फिर प्रलय के बीच हों.

शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब कोई करीबी, परिचित, मित्र या जिससे आप भले मिले न हों लेकिन जिसे उसके काम से नजदीक से जानते हों और करीबी महसूस करते हों, उसके गंभीर रूप से बीमार होने, जीवन-मृत्यु के बीच कई दिनों तक संघर्ष करने और अचानक साँसें उखड़ने की हिला देनेवाली ख़बरें न आ रही हों.

श्रद्धांजलियाँ रुटीन हो गईं हैं. एक से दूसरी श्रद्धांजलि के बीच फोन के की-बोर्ड पर उंगलियाँ जैसे यांत्रिक तरीके से चल रही हों. अपने किसी करीबी या जानकार के न रहने के अहसास को पूरी तरह अब्जार्ब कर पाएं, उसे संभाल पाएं, मन को समझा पाएं, उससे पहले ही किसी और परिचित के जाने की खबर आ जा रही है.

रोहित सरदाना के निधन की खबर के बीच मुझे अपने कई मित्रों, परिचितों, विद्यार्थियों और करीबियों का ख्याल आ रहा है जो अब भी घर पर या अस्पताल में इस बीमारी से लड़ रहे हैं. कई को अस्पताल में बहुत जद्दोजहद के बाद बेड मिल पाया है, किसी के लिए कहीं से आक्सीजन का इंतजाम हुआ है और कोई किसी तरह घर पर ही मैनेज कर रहा है.

उन सबके लिए रोज प्रार्थना करता हूँ. कुछ से फोन पर बात करता हूँ. हिम्मत-हौसला देने की कोशिश करता हूँ. कुछ के लिए कभी ट्विटर पर, कभी व्हाट्सएप्प पर और कभी बेशर्मी से कुछ मददगारों को फोन करके परेशान करता रहता हूँ.

जिंदगी जैसे ठहर सी गई है. सुबह डरते-डरते फोन उठाता हूँ. कोई फोन बजता है तो आशंकाओं से भर उठता हूँ. बुरी खबरों से मन उदास और बेचैन हो उठता है. कभी किसी की स्थिति में सुधार की खबर आती है तो मन हुलस पड़ता है.

इस समय मुझे उन डेढ़ सौ से अधिक पत्रकारों की याद आ रही है जिनकी पिछले एक साल में कोरोना संक्रमण और उनमें से अधिकांश की उचित समय पर सही इलाज न मिलने से मौत हुई है.

इन डेढ़ सौ पत्रकारों में बहुतों को आप या हम नहीं जानते हैं, वे टीवी के परदे पर नहीं दिखते थे, वे स्टार पत्रकार नहीं थे, उनमें से ज्यादातर छोटे शहरों, जिलों और राज्यों की राजधानियों में छोटे-बड़े अखबारों, न्यूज चैनलों और डिजिटल पोर्टलों के लिए काम करते थे. कई फ्रीलान्सर्स थे. उनकी तनख्वाहें लाखों में नहीं थीं, उनके ऊँचे कनेक्शन नहीं थे लेकिन कोरोना महामारी की रिपोर्टिंग में वे अगली पंक्ति में थे.

लेकिन अफसोस कि उनमें से अधिकांश को हम-आप या देश नहीं जानता. किसी पत्रकार संगठन या सरकारी एजेंसी के पास उनका पूरा ब्यौरा नहीं हैं. ट्विटर और फेसबुक पर उनके कुछ करीबियों को छोड़कर किसी जानेमाने पत्रकार, राजनेता और सोशल मीडिया स्टार ने उन्हें श्रद्धांजलि नहीं दी.

पत्रकार भी किसी संकट, हादसे और दुर्घटना के समय फायर ब्रिगेड, पुलिस, प्रशासन, सहायताकर्मियों, डाक्टरों की तरह "फर्स्ट रिसपोंडर्स" हैं जो कई बार अपनी जान जोखिम में डालकर हमें मौके से रिपोर्ट करते हैं, उस हादसे के बारे में हमें जागरूक रखते हैं और उनकी रिपोर्टिंग प्रशासन पर दबाव बनाकर रखती है जिससे आमलोगों को सहायता और राहत मिलने में देर और दिक्कत नहीं हो.

यह महामारी भी इसका अपवाद नहीं है. पत्रकारों के बड़े हिस्से ने अपनी जान जोखिम में डालकर इस सदी की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी को रिपोर्ट किया है. यह ठीक है कि अनेक बड़े न्यूज चैनलों और अखबारों ने इस महामारी की जैसी क्रिटिकल और इन-डेप्थ कवरेज होनी चाहिए थी, वह नहीं की है. इसकी कीमत देश और समाज के साथ आम लोग चुका रहे हैं.

लेकिन इसके लिए वे पत्रकार और रिपोर्टर जिम्मेदार नहीं है. इसकी पूरी नैतिक जिम्मेदारी न्यूज चैनलों और अखबारों के मालिकों और संपादकों की है जिन्होंने जान-बूझकर पिछले कुछ सालों में प्रोपेगंडा और खबर के बीच के फर्क को मिटा दिया है. मुनाफ़े के लिए पत्रकारिता को सत्ता का चारण और समाज में जहर फैलाने का हथियार बना दिया गया है.

सच पूछिए तो इन कार्पोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने अपने रिपोर्टरों की जान और विश्वसनीयता/प्रतिष्ठा दोनों को खतरे में डाल दिया है. रिपोर्टर इस संकट के फ्रंटलाइन से रिपोर्ट कर रहे हैं लेकिन पूछना चाहिए कि कितनी न्यूज मीडिया कंपनियों ने उनकी सुरक्षा का इंतजाम किया है, उन्हें सुरक्षा गियर दिया है, उनके बीमार होने पर उनके इलाज का इंतजाम किया है, उसका खर्च उठाया है? उनकी सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था की है? उनके मानसिक स्वास्थ्य की चिंता की है?

उलटे इन कार्पोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों ने इस महामारी के बीच में सैकड़ों पत्रकारों को नौकरियों से निकालने में देरी नहीं की. उनके वेतन में कटौती की. उन्हें फर्लो पर भेज दिया. उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया.

इसमें यह उम्मीद करना बेकार है कि ये न्यूज चैनल, अखबार और डिजिटल पोर्टल और उनके मैनेजर/संपादक अपने उन रिपोर्टरों और डेस्क पत्रकारों के मानसिक स्वास्थ्य और इस भयावह त्रासदी की उनके मन पर पड़ रहे आघात (ट्रामा) की चिंता करेंगे? उन्हें जरूरी केयर और मानसिक स्वास्थ्य के लिए मनोवैज्ञानिकों की व्यवस्था करेंगे?

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारों को भी इन गुमनाम लेकिन फ्रंटलाइन रिपोर्टरों और पत्रकारों की कोई परवाह नहीं है. कल्पना कीजिए कि अगर अन्य फ्रंटलाइन वर्करों की तरह कोई पांच लाख पत्रकारों और रिपोर्टरों को भी शुरुआत में ही वैक्सीन लगा दी जाती तो आज बहुतेरी जानें बच सकती थीं.

आपमें से कुछ लोग कह सकते हैं कि जब देश में दो लाख से अधिक आम नागरिकों को इस महामारी ने असमय लील लिया जिनमें डाक्टर्स, स्वास्थ्य और पुलिसकर्मी सभी हैं, पत्रकारों की मौत क्यों खास है?

आप ठीक कह रहे हैं. पत्रकार वीआईपी नहीं हैं और उन्हें विशेष ट्रीटमेंट की मांग भी नहीं करना चाहिए. वे भी उन्हीं अनेकों आम नागरिकों में हैं जिन्हें इस महामारी में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और बदहाली ने असमय मार डाला.

लेकिन याद रखिये, अगर हमने अपने पत्रकारों और रिपोर्टरों का ध्यान नहीं रखा तो उन लाखों लोगों के दुःख, तकलीफ, लाचारी और उनके एक-एक सांस के संघर्ष की सच्ची कहानियां हम तक कौन पहुंचाएगा जिन्हें सरकारों ने इस महामारी में भगवान भरोसे छोड़ दिया है?

इस महामारी ने हम-सबसे, देश-समाज से क्या छीना है, हमें उसकी कहानियां कहनेवाले स्टोरी-टेलर्स चाहिए. कोई भी संवेदनशील समाज इन कहानियों के बिना जिन्दा और खड़ा नहीं हो सकता है.

ऐसे सैकड़ों-हजारों युवा और ईमानदार पत्रकार और रिपोर्टर हमारे वही स्टोरी टेलर्स हैं जो इस महामारी की उन कहानियों को हमारे लिए संजों रहे हैं जिसमें हमारा-आपका दुःख, तकलीफ और अपनों को खोने की पीड़ा है, तमाम मुश्किलों और तकलीफों के बावजूद इंसानी हिम्मत, जज्बे, भाईचारे और एक-दूसरे के साथ खड़े होने के प्रेरक प्रसंग हैं और कुछ उम्मीदें-कुछ निराशाएं हैं.

इन कहानियों में ही महामारी की त्रासदी, व्यवस्था की विफलताएं और सरकारों की लापरवाहियां दर्ज होंगी.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार