महामारियों के सबक: क्या हम कुछ जल्दी जश्न मना रहे हैं?

लगता है कि सब कुछ नार्मल हो गया है. हर ओर जश्न का माहौल है. कोई साल भर बाद शहर एक बार फिर शोर, भीड़, गाड़ियाँ, बेपरवाह लोग, युवा और खिलखिलाहट से गूंज रहे हैं.

इन दिनों हमारे शहरों में लम्बे अरसे बाद खुशियाँ लौट रही हैं. शापिंग माल्स में भीड़ बढ़ रही है, सेल और प्रदर्शनियां और उनके विज्ञापन लौट आये हैं, बाजारों में लोग एक-दूसरे के साथ कंधे रगड़ रहे हैं, रेस्तरां और खाने-पीने के स्टाल पर लोग चटकारे ले रहे हैं, मेट्रो और बसों में लोग दिखने लगे हैं.

इन सबके बीच महान लेखक अल्बेयर कामू और उनका उपन्यास 'प्लेग' और उसकी आखिरी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं. ये लाइनें बड़े मार्के की हैं जब कामू शहर में प्लेग की महामारी के खत्म और उससे मुक्त हो जाने के दृश्य का बयान कर रहे होते हैं :

"...जब रियो ने शहर से उठती हुई ख़ुशी की आवाजों को सुना तो उसे याद आया कि ऐसी ख़ुशी हमेशा ख़तरे का कारण होती है. उसे वह बात मालूम थी जो खुशियाँ मनानेवाले नहीं जानते थे लेकिन क़िताबें पढ़कर जान सकते थे. वह बात यह थी कि प्लेग का कीटाणु न मरता है, न हमेशा के लिए लुप्त होता है. वह सालों तक फर्नीचर और कपडे की आलमारियों में छिपकर सोया रह सकता है; वह शयनगृहों, तहखानों, संदूकों और किताबों की आलमारियों में छिपकर उपयुक्त अवसर की टाक में रहता है; और शायद वह दिन फिर आएगा जब इंसानों का नाश करने और उन्हें ज्ञान देने के लिए वह फिर चूहों को उत्तेजित करके किसी सुखी शहर में मरने के लिए भेजेगा."

क्या लोग कुछ जल्दी में नहीं हैं? क्या कोरोना महामारी चली गई है? इस बेपरवाही, हंसी-खिलखिलाहट और जश्न में हम इस महामारी के सबक को भूल रहे हैं?

महामारी के सबक

पिछले साल जब कोरोना महामारी आई..अपने साथ मौतें और डर, घबराहट, बेचैनी, अवसाद, तनाव और दबाव लेकर आई. उसके साथ हमारी रोजमर्रा की बातचीत में लाकडाउन, होम आइसोलेशन, सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क, साबुन हाथ से धोना जैसे शब्द आए.

दरअसल, हमारी पीढ़ी और हमसे आगे की एकाध और बाद की अधिकांश पीढ़ियों को महामारियों से होनेवाली असंख्य मौतों और तबाही का कोई अंदाज़ा नहीं था...कोरोना या कोविड19 महामारी ने हम-सब को प्रत्यक्ष अनुभव कराया है कि एक महामारी क्या होती है? यह तब है जब दुनिया ने विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में इतनी तरक्की कर ली है..

लेकिन आप दो सौ या सौ साल पहले की कल्पना कीजिये जब पहले हैजा, फिर प्लेग और आखिर में इन्फ्लुएंजा या फ्ल्यू ने दुनिया भर में और खासकर भारत में भारी तबाही मचाई थी..उस दौर खासकर 1817 से 1920 के उन सौ सालों की कुछ कहानियां आप अपने परिवारों के बड़े-बुजुर्गों से सुन चुके होंगे..

मेरे लिए इन महामारियों का एक व्यक्तिगत प्रसंग भी है...मैं उत्तर प्रदेश में गाजीपुर जिले में मोहम्मदाबाद तहसील के एक छोटे से गाँव सुल्तानपुर का का रहनेवाला हूँ जो 1894-96 के बीच आई प्लेग महामारी से प्रभावित हुआ था..मैं अपने पिता से उनके पिता यानी मेरे बाबा की कहानियां सुनता आया हूँ जो 1895-96 में लगभग पांच के थे...उस दौरान हमारे संयुक्त परिवार में कोई सोलह लोगों की मौत प्लेग से हुई थी..आलम यह था कि घर में परिवारजन एक मौत के बाद उनका दाह-संस्कार करके लौटते थे..तब तक एक और मौत हो जाती थी...मेरे पांच साल के बाबा की जान किसी तरह बची..

कहते हैं कि कोई सौ-दो सौ सालों पहले देश में बीमारियों और महामारियों का ऐसा कहर था कि छोटे बच्चों की परिवार के सदस्य के बतौर गिनती नहीं होती थी जब तक कि उसे कोई बड़ी बीमारी न हो जाए और वह उसमें बच जाए...

आज यह सुनकर शायद आश्चर्य हो कि 19वीं से 20वीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों तक आम भारतीय की औसत उम्र 25 साल से कम थी..जो 25 बसंत से ज्यादा देख ले, वह भाग्यशाली था...बहुत कम लोग अपने पोतों को देख पाते थे..युद्ध, अकाल, प्राकृतिक आपदाएं और महामारियां एक तरह से जीवन का हिस्सा थीं...

18वीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेकर 20वीं शताब्दी के पहले दो दशकों के बीच के सौ सालों में दुनिया भर में महामारियों के कई दौर आये जो कई सालों तक चले...कई जगहों पर उनकी कई लहरें आईं...इतिहासकारों का अनुमान है कि इन सौ सालों में महामारियों में वैश्विक स्तर पर कोई सात करोड़ लोगों की मौत हुई...इसमें भारतीय उपमहाद्वीप इन महामारियों के केंद्र में था...इस दौरान भारत में कोई 4 करोड़ लोगों की मौत हुई.. 

इतिहास बदलती महामारियां

इसमें कोई शक नहीं है कि दुनिया के इतिहास को गढ़ने-बदलने में युद्धों, राजनितिक-सामाजिक क्रांतियों और वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ वैश्विक महामारियों यानी पैंडेमिक्स की भी बड़ी भूमिका रही है. युद्धों की तरह हर बड़ी महामारी ने भी इतिहास में बहुत कुछ बदल दिया है. महामारियां कई अच्छे-बुरे निशान छोड़ जाती हैं.

इतिहास बताता है कि महामारियों के बाद दुनिया वैसी ही नहीं रह गई, जैसे महामारी से पहले थी. कहा जा रहा है कि कोरोना महामारी भी दुनिया को बदलकर ही जायेगी. यह सच है कि इतिहास, आश्चर्यों और उलट-पलट से भरा है और इस कारण कोई भी दो अलग-अलग संकटों की तुलना बेमानी है.

लेकिन पिछले सौ सालों में दुनिया ने देशों-महाद्वीपों की चौहद्दियों को लांघकर इतने बड़े पैमाने पर और दूर-दूर तक फैली महामारी कहाँ देखी थी? आख़िरी बड़ी महामारी 1918-19 की स्पेनिश फ्लू या इन्फ्लुएंजा थी जिसमें भारत समेत यूरोप में करोड़ों लोगों की मौत हुई थी. लेकिन उसके बाद पिछले सौ सालों में बीमारियाँ तो रहीं, क्षेत्रीय स्तर पर एपिडेमिक्स यानी महामारियों के सीमित प्रभाववाले क्षेत्र और उनकी मार भी रही लेकिन वैश्विक महामारियों का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता चला गया.

इन सौ सालों में दुनिया ने 30 के दशक की महामंदी और उसकी तकलीफ देखी है, पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की बर्बादी भुगती है, 1918-19 के स्पेनिश फ्लू में करोड़ों लोगों को मरते देखा है लेकिन कोविद19 के पहले ऐसा कब हुआ था जब अर्थव्यवस्था के पहिये ऐसे थम गए हों, फैक्ट्रियों से धुआं उठाना बंद हो गया हो, बाज़ार और सड़कें सूनी हो गईं हों, हवाई जहाज और ट्रेनें रुक गईं हों और दुनिया भर में दो अरब से अधिक लोग कई सप्ताहों तक घरों में बंद रहने को मजबूर हुए हों?

इसमें कोई शक नहीं है कि कोरोना महामारी से पैदा हुआ संकट कई मायनों में अभूतपूर्व है. दुनिया खासकर विकसित राष्ट्र हिल गए हैं, जिन्हें अपनी तरक्की खासकर विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की अभूतपूर्व तरक्की पर इतना गुमान था, वे कोविड19 की मार से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.

महामारी गई नहीं है...वायरस इंतज़ार कर रहा है

हो सकता है कि आपमें से बहुतों को लगता होगा कि वायरस कमजोर पड़ गया है. महामारी बीत गई है. डर, बेचैनी, तनाव और अवसाद के दिन पीछे रह गए हैं.

आपमें से बहुतों को लगता होगा कि सावधानी, सतर्कता और मास्क बहुत हो गया. अब फिर से खुलकर जिंदगी जीने का मौका आ गया है.

लेकिन ठहरिये, यह जल्दबाजी भारी पड़ सकती है. वायरस गया नहीं है. उलटे वह खुद को बदल रहा है..कुछ मामलों में और ज्यादा घातक अवतार ले रहा है.

'प्लेग' उपन्यास की आखिरी लाइनें याद कीजिये. वायरस को मौके का इंतज़ार है. वह मौका हमारी लापरवाही से ही मिलेगा.

मार्क्स ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है...पहली बार वह त्रासदी होता है लेकिन दूसरी बार प्रहसन बन जाता है.

यह लापरवाही इस त्रासदी को प्रहसन बना सकती है.

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आनंद प्रधान

देश-समाज की राजनीति, अर्थतंत्र और मीडिया का अध्येता और टिप्पणीकार